धीर धीरे जुर्रतों को मेरी
मिल गया दर्जा एक ख़ता का
आहिस्ता आहिस्ता ही सही
इस मक़ाम तक पहुँच ही गयी ज़िन्दगी
चलो ग़नीमत है
तुम्हें याद तो होगा
मैंने पहले ही कह दिया था
मेरी पहली ज़ुर्रत पर ही टोक देना
बात को वहीँ रोक देना
फिर शिकायत न होगी
मैं समझ जाऊंगा
सुलझ जाऊँगा बदल लूंगा रास्ता
तुम सही तरफ हो लेना
मैं बायें हाथ मुड जाऊंगा
वरना मुसीबत होगी
ख़ैर 'दोस्त' अब तो बीती बीत चुकी
मेहरबानी उनकी बर्दाश्त की
जो बर्दाश्त कीं जुर्रतें मेरी
फिर गले लगाया खता को भी