धीरे धीरे ही सही
पर कुछ तो है, जो अब नहीं है
मतलब मेरे पास नहीं है
शायद चुरा रहा है ये ज़माना
मेरा ख़ज़ाना
पहले तो ग़ुम हो जाती थीं सिर्फ चीज़ें
एक कमीज़, एक घड़ी, एक कोट
पूर्वजों की दी सोने की एक अंगूठी
मेरी प्यारी आर्मी की जैकेट
किसीने कहा था उस जैकेट में
तुम बहुत अच्छे लगते हो
मैंने कहा चलो अब जैकेट न सही
जैकेट वाली फोटो तो है
उसी से गुज़ारा कर लो
बात उस तक पहुंची है तो
उन ख़तों तक भी जाएगी
उन लफ़्ज़ों को फिर से रोशन कर जाएगी
हाँ वो ही
उसके वो पुराने सहेज के रखे चंद ख़त
जो उसकी ज़ुल्फ़ों के अँधेरे की तरह
अब नहीं दिखाई देते
उनकी खुशबू की तरह
उनका वजूद अब एक एहसास से ज़्यादा कुछ नहीं
और वो लम्बा सा
घास का एक टुकड़ा
जो पहली और दूसरी कहानी के
दो पन्नों के बीच
हमेशा ही दबा रहा
वो भी शायद गिर गया कहीं
टुकड़ा वो घास का हो सकता है
पर उसका काम बेहद ज़रूरी था
वो मेरी दोनो कहानियों को अलग रखता था
उस आख़िरी मुलाक़ात के दिन
उसीने बग़ीचे से तोड़ के दिया
और क़िताब बंद कर दी थी
अब ख़ैरियत इसी में है
कि चीज़ों को खोने का
रिश्तों के नर्म होने का
यादों के धुंधले होने का
उस कमीज, जैकेट और अंगूठी का
बंद कर दूँ मातम मनाना
ख़ुशक़िस्मती से 'दोस्त'
क्योंकि कोई चुरा नहीं पायेगा
मेरा ये अंदाज़ आशिकाना
और ख़याल शायराना
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