नमस्कार महोदय
नमस्कार, जी आप... कौन? पहचाना नहीं मैंने।
जी मैं एक दूत हूँ। नदी के तट पर जो धर्मशाला है वहां से आया हूँ।
इतनी दूर से? जी कहिये।
जी गौतम से काम था. वो घर में हैं क्या ?
गौतम? जी नहीं वो तो अभी नहीं हैं।
ये कहते हुए गौतम के चेहरे पर चिंता सी उभर आयी थी।
जी अच्छा... जी, तो कब तक आ जायेंगे वो ?
मैं क्या कह सकता हूँ ? वो अपनी इच्छा के अनुसार आते जाते हैं। किसी को कुछ नहीं कहते। हो सकता है अभी प्रगट हो जाएँ। या तीन दिन तक के बाद भी दृषिगोचर न हों। पर आप आने का प्रयोजन तो बता ही सकते हैं। मैं गौतम से कह दूंगा।
वैसे तो मुझे कठोर निर्देश है की इस विषय पर किसी से कोई चर्चा न करूँ , परन्तु क्योंकि आप कदाचित गौतम के साथ रहते हैं मैं आपको ये सन्देश दे देता हूँ।
जी कृपा होगी। गौतम को भी इस सन्देश पर कोई कार्य करना हो तो समय व्यर्थ नहीं होगा।
जी उनसे कहिये कि देवांगना जिवानी नगर की धर्मशाला में कुछ दिनों के लिए आयी हैं। यदि सम्भव हो तो श्री गौतम से मिलने की इच्छा रखती हैं।
देवांगना जिवानी स्वयं ! आप तनिक विराजें मैं कुछ फल काट कर अभी प्रस्तुत करूंगा।
जी नहीं। आप कष्ट न लें।
कदापि नहीं इसमें कष्ट... किसी प्रकार का कष्ट नहीं है। आप इतनी दूर से (बाहर झांकते हुए और कोई अश्व न देख कर) पैदल ही आये हैं। केवल पांच क्षण लगेंगे (एक हलकी सी मुस्कान के साथ)
अंदर के कक्ष में पांच क्षणों में गौतम के चेहरे पर कई भाव आये और गए। क्या अपनी पहचान छुपा कर गौतम ने बिना कारण एक असत्य अपने ऊपर ओढ़ लिया।
असत्य ... कई वर्ष पहले एक असत्य ने ही उसकी राह में कितने कांटे बो दिए थे। विवाह के समय ही वो जिवानी को मिला था और एक छोटी सी अवधि में ही वो दोनों प्रेम के अथाह सागर में डूब गए थे। उधर उसके पिता माता उससे परामर्श किये बिना राज्य के एक धनाढ्य व्यापारी की सुपुत्री को अपनी बहू बनाने का वचन दे चुके थे। गौतम को जब से भान है उसने सदैव अपने माता पिता के हर वचन का पालन किया था। कदापि इच्छा न रहते हुए अस्त्र शस्त्र का ज्ञान अर्जित किया, अश्वारोहण में निपुण हो गया, वो युद्ध की जटिलता एवं गूढ़ता का भी विशेषज्ञ बन गया था। पर इस विवाह को सिर झुका कर स्वीकार करना उसके लिए अत्यंत कठोर चुनौती बन गया था।
पीतल की थाली में कटे हुए सेब तथा छीले हुए संतरे ले कर गौतम बाहर आया। क्षमा करें कदाचित तनिक विलम्ब हो गया। आप ग्रहण करें मैं जल ले कर अभी उपस्थित हुआ।
अब आप तो मुझे लज्जित कर रहे हैं।
कदापि नहीं। आप ग्रहण करें।
जी।
आपसे एक क्षमा याचना करनी है।
जी ! ऐसा क्या घट गया ?
देव मैंने किसी पर्याप्त कारण के बिना आपसे एक असत्य कह दिया।
असत्य ? कैसा असत्य ?
जी गौतम के विषय में।
ओहो तो क्या गौतम यहाँ नहीं विराजते ? मेरा अत्यंत मूल्यवान समय व्यर्थ हो गया।
नहीं नहीं ऐसा कदापि नहीं है। जी वास्तव में गौतम आपके समक्ष उपस्थित है।
जी?
जी क्षमा करें सेवक ही गौतम है।
परन्तु आपने ऐसा किस कारणवश ..?
चलिए इसका भेद मैं राह में खोलूँगा, राह भी कट जाएगी
दोनों द्धार के बाहर निकले। गौतम ने किसीको रक्षक के नाम से बुलाया। एक श्वान उठ कर आया। गौतम ने कहा "तनिक ध्यान रखो हम संध्या काल तक आएंगे। ये लो कुछ फल हैं। मित्रों के साथ मिल बाँट के ग्रहण करना।" श्वान खुले हुए द्वार के समक्ष बैठ गया।
राह में कुछ क्षणों पश्चात् गौतम ने आगंतुक से अपने परिचय का अनुरोध किया।
आनंद। पिताजी ने नामकरण किया था, आनंद अरुण।
ये तो अत्यंत दुर्लभ नाम है। एक ओर आनंद तथा उसके समकक्ष सूर्य। इस नाम की कोई तुलना नहीं हो सकती।
आनंद के मुख पर एक नन्ही सी मुस्कान बिखर गयी, अपने नाम पर परन्तु उससे अधिक अपने पिता की प्रशंसा से।
मेरे पिता शास्त्रों के पंडित थे तथा लेखक भी थे। इसी वर्ष माघ के माह में उन्होंने मोक्ष ले लिया।
मुझे खेद है आनंद।
नहीं कोई बात नहीं। अंतिम समय में उनके चेहरे पर अत्यंत संतोष एवं स्नेह था।
इस प्रकार का प्रयाण तो ऋषियों को ही प्राप्त हो सकता है।
आप अत्यंत उदार हृदय हैं।
तो कहिये देवी जिवानी का मुझसे क्या प्रयोजन हो सकता है।
इस प्रश्न का उत्तर तो मेरे लिए दुष्कर है। परन्तु उनके विषय में यदि मैं कुछ कहूँ तो कदाचित कोई अर्थ निकले।
आवश्य कहो। क्षमा... कहिये।
जी निन्दित न करें। मैं आपसे आयु तथा ज्ञान में बहुत पीछे हूँ। आप मुझे त्वम् या तुम कह सकते हैं। गौतम ने आनंद के कंधे पर हथेली रखते हुए कहा ।
मैं देवी के सान्निध्य में वर्षों से रहा हूँ। वे सदैव अति हंसमुख स्वाभाव की महिला रही हैं। परन्तु विगत चंद माह से वो किसी विचार में लुप्त रहने लगी हैं। मैंने एक बार जानने का प्रयत्न किया था, परन्तु इसका रहस्य वो मुझे कदापि नहीं कहेंगी। मैं उनके इतना घनिष्ठ नहीं हूँ।
हम्म ... तो तुम इस निष्कर्ष पर कैसे पहुँच गए कि वो इस रहस्य का मेरे समक्ष अनावरण कर देंगी?
आपका ये प्रश्न उचित है परन्तु इसका उत्तर इतना सरल नहीं है। मुझे चारों ओर परिक्रमा करके आपको अनेकों कहानियां सुनानी पड़ेंगी।
मैं सुनने के लिए तत्पर हूँ।
आदरणीय गौतम मेरा विचार है हम कुछ समय इस झरने के समीप उस समतल सी शिला पर विराज लें। तनिक विश्राम के साथ जल ग्रहण करें हस्त एवं मुख प्रक्षालन भी। परन्तु मुझे देवी की समस्या का वर्णन करने में और भी अधिक समय लगेगा। यहाँ से वो धर्मशाला केवल अर्ध कोस पर ही है।
मैं तुम्हारी योजना की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। तो कहो।
(शेष फिर कभी)